शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

vo to sapnon ke saath rahta hai

वो तो अपनों के साथ रहता है/
यानी सपनों के साथ रहता है/

कोई सपना उसे मिला होगा 
जिसने कानों में कुछ कहा होगा 
उसके होठों को फिर छुआ होगा 
वो भी सपने के संग बहा होगा 

वो फसानों के साथ रहता है /

लाख़ सपने उसे बुलाते हैं 
गोद में रात दिन सुलाते हैं 
और जिसमे वो झूलना चाहे 
बस उसी  में उसे झुलाते हैं 

वो ख़ज़ानों के साथ रहता है /

फूल समझेंगे उसकी ख़ामोशी 
ख़ामुशी में है उसकी बाहोशी
जा के ठहरेगा किस ख़ज़ाने में 
उसका इक लफ़्ज़ है जो मयनोशी  

आसमानों के साथ रहता है /
वक़्त गर मिल सका तो पूछेंगे 
कौन कितनों के साथ रहता है?
०००

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

Jayega tu is ghar se kahan?

दुनिया के कई रंग कई रूप हैं प्यारे 
इक वो ही तेरा है जो तेरा रूप संवारे 
कुछ सोच के चल वक़्त के संग हाथ पसारे 
जायेगा तू इस घर से कहाँ लौट के प्यारे ?

वो रूप कि जिसकी न कोई उम्र मुक़र्रर 
जिसको न समझ पाया कोई ख्वाब से बेहतर 
हम उसके लिए जैसे कोई ख्वाब बुनें  हैं 
ख्वाबों के लिए दर चुनें दीवार चुनें हैं 
क्या हों दरोदीवार खबरदार सुनें हैं 

क्यों मुझको मेरी तरह से कोई न पुकारे ?

हर शख्स को सौगात में कुछ रूप मिले हैं 
कुछ फूल तो पत्थर की शिलाओं पे खिले हैं 
उनको भी ठहर कर तो कभी कोई दुलारे 
बहते हैं बहुत तेज़ यहाँ वक़्त के धारे 
उतरा था कोई चाँद तेरे आंगने इक दिन 
आया था कोई ख्वाब तुझे मांगने इक दिन 
अब जी ले उसी ख्वाब के ख्वाबों के सहारे 

जायेगा तू इस घर से कहाँ लौट के प्यारे ?
000

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

GEET

आग लग रही है धीमे धीमे 
यार तेरी- मेरी  जिंदगी में 

मोह गए रंग भरे माटी के खिलौने 
चांदनी नहाये हुए ओस के बिछौने 
स्वप्न तो यही हैं सारी उम्र के सलोने
लौट कर न आये जंगलों से मृग छौने

प्यारे अपनी प्यास की नदी में 
आग लग रही है धीमे धीमे 

आदमी को ठीक से न वक़्त ने तराशा 
घूम रहा गली गली भूखा और प्यासा 
आदमी तो ढोल हुआ, जिंदगी तमाशा 
हाल कोई पूछे कभी हम से ज़रा सा 

बर्फ पर खड़े हो रोशनी में 
आग लग रही है धीमे धीमे 

प्यासी रहीं खून की सदा ही सभ्यताएं 
आदमी को कैसे राग रागिनी सुनाएँ 
हम हैं परेशान कैसे आदमी बचाएं 
हो सके तो राह  कोई आप ही बताएं 

खून की ही प्यासी इस सदी में 
आग लग रही है धीमे धीमे 
000

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

Ghazalnuma geet

कितना दुश्वार है हर बात के क़ाबिल होना 

मुझसे पूछे कोई तन्हाई से महफ़िल होना 

उसको अंजाम तो मालूम है अपना लेकिन 
दरया क्यूँ चाहेगा इक लम्हा भी साहिल होना 

गुल तो गुल आंधियां नाराज़ हैं खारों पर भी 
अब ज़रूरी है चमन में मेरा दाखिल होना

सिर्फ़ उसके ही निशाँ पाए गए राहों पर 
जिसने मंज़ूर किया अपना ही क़ातिल होना 

उम्र के साथ ही एहसास बदल जाता है 
अब मुनासिब नहीं हालात से गाफ़िल होना 
000


सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

Ek Geet

एक सपना उगा जो नयन में कभी 
आंसुओं से धुला और बादल हुआ 


धुप में छांह जैसा अचानक मिला 
था अकेला मगर बन गया क़ाफ़िला
चाहते हैं कि हम भूल जाएँ मगर 
स्वप्न से है जुड़ा स्वप्न का सिलसिला 


एक पल दीप कि भूमिका में जिया 
अंज लो आँख में नेह काजल हुआ 
०००  

Ek Geet

एक सपना उगा जो नयन में कभी 
आंसुओं से धुला और बादल हुआ 


धुप में छांह जैसा अचानक मिला 
था अकेला मगर बन गया क़ाफ़िला
चाहते हैं कि हम भूल जाएँ मगर 
स्वप्न से है जुड़ा स्वप्न का सिलसिला 


एक पल दीप कि भूमिका में जिया 
अंज लो आँख में नेह काजल हुआ 
०००  

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

Ek Geet

एक ख़त जो किसी ने लिखा भी नहीं 
उम्र भर आंसुओं ने उसे ही पढ़ा 


गंध डूबा हुआ एक मीठा सपन 
कर गया प्रार्थना के समय आचमन 
जब कभी गुनगुनाने लगे बांस वन 
और भी बढ़ गया प्यास का आयतन 


पीठ पर कांच के घर उठाये हुए 
कौन किसके लिए पर्वतों पर चढ़ा ?


जब कभी  नाम देना पड़ा प्यास को 
मौन ठहरे हुए नील आकाश को
कौन संकेत देता रहा क्या पता 
होंठ गाते रहे सिर्फ आभास को 


मोम के मंच पर अग्नि की भूमिका 
एक नाटक समय ने यही तो गढ़ा
000

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

Ghazalnuma geet

मैंने जो बात कही थी कभी बरसों  पहले 
चाहता हूँ कि मेरा दिल वही फिर से कह ले 


डूबना है तो ये दरया ये समंदर क्या है 
हाँ ज़रूरी है मिले खुद से इजाज़त पहले


वक़्त के खेल तमाशों को जानिए साहब 
ताकि सहने न पड़ें नहलों पे झूठे दहले 


ये जो चेहरे पे लिए चेहरा चले आते हैं  
तू तो इंसान है 'शतदल' इन्हें हंस कर सह ले 
००० 

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

GEET

स्वप्न जो भी बंधे रेशमी डोर से
टूट कर गिर पड़ेंगे नयन-कोर से
और फिर हम न जाने कहाँ किस तरह
उम्र के जंगलों का सफ़र तय करें 

जब हमारे अहम् का विसर्जन हुआ 
बिम्ब जो भी उगा एक दर्पण हुआ 
किन सुरों में बजे प्राण की बांसुरी
अब हमारे तुम्हारे अधर तय करें 


प्यार को प्रार्थना जो नहीं  मानते 
वे समझ लो स्वयं को नहीं जानते
पीर को राजरानी बना कर जहाँ 
रख सकें हम चलो वो नगर तय करें 

रोशनी का यहाँ एक झरना नहीं 
दिन ढले तो किसी को ठहरना नहीं 
शाम को गीत का रूप जिसमें मिले 
हम चलो एक ऐसी बहर तय करें 
000

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

Geet

दृग न बोलते जल की भाषा 
तुम न अगर जल का भ्रम होते


मैं मृग हुआ कि मेरे भीतर 
एक मरुस्थल जनम - जनम से
जिसके कारण मैंने फिर ये
जीवन जिया नहीं सय्यम से 


तृप्ति अगर छू जाती इनको 
अधर नहीं ये सरगम होते 
000

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

Ek Geet

गुज़रे हुए समय में झांको 
कोई पल ऐसा है जिसमे 
पूरी एक सदी रहती है/


पल जो सदियों में ढलते हैं
पलकों के नीचे पलते हैं
लेकिन कभी कभी हम इनमें 
आँखें बंद किये चलते हैं 
आँखें खुली रहें तो देखें 
जन्मों से प्यासे अधरों में 
मीठी एक नदी बहती है . 
000 

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

Kavita !

कविता के लिए 
भावलोक में 
हाथ, पैर, मुंह और 
पूरा शारीर पटकते हुए लोग...
एक दिन हो जाते हैं - खाक ,
हो जाते हैं दफ़्न
किसी अंधी सुरंग में .
हमारी किलकारियां ,
गुनगुनाहटें ,
आवाजें और 
यहाँ तक कि चीखें 
सुरंग के मुहाने पर खड़ी
भीड़ के कानों तक नहीं पहुँच पातीं .
.......भीड़ जो असहाय है ,
भीड़ जो दृष्टी हीन है ( देख नहीं सकती ),
भीड़ जो अपाहिज है,
भीड़ जो जानवर है,
भीड़ एक भ्रम है.
०००
भीड़!
सुरंग के मुहाने पर
करती है - प्रतीक्षा 
किसी शब्द - सूर्य की !
.......कहाँ है ऐसा सूरज जो
भीड़ को खुश कर दे.
ले आये हज़ार - हज़ार खुशियाँ 
कहाँ है ऐसा सूरज ?
०००
सुरंग के भीतर जा रहे हैं लोग,
सुरंग से बाहर आ रहे हैं लोग,
लेकिन यह क्या !
लोग अपने कन्धों पर सलीब  ढो रहे हैं !
.......हाँ , उन्हीं में कुछ हैं जो 
हाथों में लाल गुलाब लिए हैं /
भीड़ लाल गुलाब लिए लोगों को देखती है 
बड़े अचरज से 
स्तब्ध रह जाती है.
.......अंधी सुरंग में गुलाब कहाँ ?
सोचती है भीड़ 
मन के तहखानों में महसूस करती है - गुलाब!
लेकिन जीवन में खिला - बसा नहीं पाती गुलाब.
बहुत चाह कर भी .......
न उसका रंग , न उसकी कोमलता !
सलीब से बहुत हल्का और कोमल होता है गुलाब 
लेकिन सलीब ढोते लोग
चुपचाप  कैसे पहुँच जाते हैं पूजा घरों तक?
अपनी मृत्यु का पैगाम ढोकर भी?
००००००० 

Kavita

 ओ मेरे प्रतिरूप !
पता नहीं कब से तुम मेरे साथ खेल रहे हो
जिसका अर्थ / मर्म समझने के प्रयास में 
अनेक बार स्वयं से जुड़ते -जुड़ते रह गया .
रह गया इसलिए कि तुम्हारे नैसर्गिक सौन्दर्य का आभास 
मुझे आकर्षित करता है /
और जब उस आभास के पीछे भागता हूँ ---तो 
अनुपस्थित हो जाता है.
इस अनुपस्थिति से मुझमें जो पराजय - बोध जन्म लेता है
उससे हर बार 
मेरी प्यास की तीव्रता बढती रही है.
०००
अपनी इस 
तीव्रतर होती प्यास को 
कब तक गाता रहूँ ?
और गाता रहूँ कब तक
तुम्हारा आभासित सत्य ?
०००
तुम्हें केंद्र मान 
आँखें मूंद 
जब तुम्हारा ध्यान किया,
तुम्हारी धूमिल आकृति 
मेरे बैंगनी दृष्टी फलक पर 
दिप - दिप करने लगी /
जिसके प्रभामंडल में 
न जाने क्या था कि
मुझे फिर कस्तूरी मृग होना पड़ा.
०००
इस खेल में
मुझे क्यों लगता है कि 
कहीं कुछ 
खोट ज़रूर है ?
या...या तो तुम सत्य नहीं हो
या फिर मेरी प्यास की तीव्रता उर्जावान नहीं है.
0000000 

सोमवार, 31 जनवरी 2011

MERI DIARY

खोलता हूँ डायरी  और खो जाता हूँ 
.......खो जाता हूँ -
जहाँ होता है मेरा वनपाखी 
कहता हूँ उससे -
आनंद के असीम आकाश में ले जाने वाले 
डायरी से उड़ कर
मत जाना /
जानता हूँ 
डायरी के किसी न किसी पृष्ठ पर ही रहोगे तुम/
तुम यहाँ आए हो /
कब आये थे ?
...खैर , डायरी के वे पृष्ठ जिन पर तुम रहे 
नीले हो गए /
और मुग्ध हूँ डायरी पर मैं 
पन्ने जब पहली बार नीले दिखे
मैंने तुम्हें पंख समेटे 
डायरी में बैठे पाया था /
तुम यहाँ आकर अपने स्वभाव से कट गए थे 
तुम्हारे कंठ का गान चुप था 
मैं तुम्हारे कंठ का खोया गीत पाने के लिए बेचैन रहा 
खोज रही हैं मेरी आँखें और मेरा स्वर वही गीत 
जो तुम गाया करते थे /
वनपाखी सुनो -
तुम डायरी में बैठ कर 
जिस संगीत के मीड का आस्वादन करते हो 
उसका सम्मोहन हमारे होने का अर्थ होता है /
तुम जिस तृप्ति से साक्षत्कार करते हो
उसे कोई संज्ञा दी  जा सकती है क्या ?
नहीं / 
डायरी को अपना पर्याय मान कर उड़ो
अभी दिन है न !
और देखो - जब डायरी के पन्ने 
सफ़ेद पड़ने लगें तो
शाम घिरते घिरते लौट आना 
डायरी के किसी न किसी पन्ने पर बसेरा लेने !
000

kuch baat

एक शख्स था यहीं  जो घटाओं दे दूर था
इंसान सा लगता था गुनाहों से दूर था.


मैं ढूँढने गया था उसी आदमी को कल
जो रूह क़ी बेचैन  सदाओं से दूर था


उसका तिलिस्म था कि था मेरी तलाश का
था सामने मगर वो निगाहों से दूर था.
000 

Dr. Dharm vir Bharti ke bahaane

मैंने उन दिनों सात या नौ रुपये की खरीदी थी एक किताब, कविता की एक किताब / कनुप्रिया / भारती की कनुप्रिया/ पढ़ा उसे कई बार/ आज भी जब तब पढता हूँ/ भीतर भीतर कनुप्रिया गूंजने सी  लगती है /...आज भी महकने लगी है कनुप्रिया / .......तब कनुप्रिया की कविताएँ दोस्तों को सुनाता घूमता था / उन दोस्तों को जो या तो कनु की भूमिका में थे या उसे समझने की में आस्था से रहा करते थे / कविताओं का अर्थ कौन कितना समझ पाया क्या कहें / अपनी अपनी पात्रता के अनुरूप ही गृहण किया होगा / उन दिनों अच्छा लगता था जब कोई छीन लेता था वह  किताब / सोचता कि प्रेम बाँटने से ही बढ़ता है /सोचता कि कल से यह भी रहेगा कालिंदी अवगाहन में मेरे साथ / यह भी जान सकेगा कनु और राधा क़ी प्रेम लीलाओं का अर्थ / अपने लिए फिर खरीद लाता था एक प्रति /.......समय का एक बड़ा टुकड़ा गुज़र  गया / देखता हूँ कि तब जो कृष्ण मुद्रा अभिनय में मजनूं तक कहलाने में फख्र  महसूस करते थे उनके रथ चक्र न जाने कब कहाँ टूट कर कैसे ध्वस्त हो गए / .......किशोर मन में "गुनाहों का देवता" के सुधा और चंदर इतने गहरे जम कर बैठ गए थे कि "कनु" और "चंदर" अक्सर मुझे एक ही नज़र आते / सोचता हूँ चंदर और कनु जैसे पात्रों को भारती ने चुना तो क्यों?.......उत्तर आता है कि पात्रों को चुनना और उन्हें किसी सांचे में ढालना , किसी फ्रेम में बुनना या जड़ना , उन पात्रों के बहाने स्वयं को जीना ही तो होता है / होता है यही होता है / पात्रों अथवा कथानक में वह अपना अक्स देखता है / सर्जक का अधिकाँश उसमें निरुपित हो जाता है / .......उन्हीं दिनों मेरी एक मित्र ने पढाया था  एक उपन्यास "रेत क़ी मछली " / भारती क़ी पहली पत्नी कांता भारती का लिखा / ...तमाम सवालों में घिर गया था / उपन्यास में मैं खोज रहा था चंदर को, जो नहीं मिला / जब सुधा नहीं थी तो सवाल ही नहीं था चंदर के वहां होने का /.......एक इकाई के रूप में प्रत्येक प्राणी अपने तंत्र के अधीन होता है / इससे प्रेम क़ी महत्ता कम हो जाती है क्या ?  प्रेम तो भक्ति क़ी कक्षा तक ले जाता है / अपना सब कुछ न्योछावर करने में ही प्रेम क़ी गति है /  तिल तिल विसर्जित होने में ही उसकी गति है / यहाँ भी शायद अपने अपने तंत्र क़ी व्यवस्थाओं का , नहीं अवस्थाओं का अंतर है / प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता और अहंकार मांगता है - प्रतिकार /......."रेत क़ी मछली" स्वयं को तनावों से मुक्त करने  क़ी कोशिश क़ी कहा जा सकता था / इसी रूप में वह एक उपन्यास था / फिर भी हो सकता है इलाहबाद में कोई भारती के उपन्यास क़ी सुधा रही हो नहीं तो रेत क़ी मछली नहीं लिखा जाता. .......खैर, यह जो बहाने से बात चल रही है ज़रूरी नहीं है कि इसे ज्यों का त्यों मान ले कोई./ शायद ग्रहण करेगा भी नहीं कोई./ हमारे पूर्वजों क़ी भाषा नहीं, बल्कि परिभाषा कि प्रेम कुछ पाने में नहीं , सब कुछ दे देने में आनंदित होता है , शाश्वत होकर भी आज नया अर्थ गढ़ने में तल्लीन है. निशरीरी आयामों से इतर  सशरीर होकर / .......कुछ सवाल भीतर पड़े थे और कुछ उगे जब अख़बारों में पढ़ा कि- "भारती नहीं रहे".
                        प्रयास करके बहुत कुछ हुआ जा सकता है सिर्फ नहीं हुआ जा सकता है तो "कनुप्रिया"
                         0000000

kal se guzarta aaj

मिलते हैं, हाँ मुझे मिलते हैं,
बरसात की ठंडी हवाओं में
जाड़े की नर्म धूप में 
गर्मी की सुबहों में 
ओस की बूंदों में 
तुम्हारे सन्देश ...बराबर मिलते रहते हैं.
बरसात की बूंदों के साथ 
बजते हैं वे शब्द जो आवारागर्दी करते हुए 
भीग जाने पर 
होठों तक नहीं आ सके थे 
आते आते रह गए थे 
बस आँखों में उनकी चमक / झलकने लगी थी 
और महकने लगा था एक संगीत .......
शहर अभी भी वैसा ही घूमता है 
घरों के भीतर और बाहर /
घर के दूसरे मोड़ पर
एक वह जो छतनार वृक्ष था
अब भी वहीँ है
लेकिन अब 
उसका ठूंठ होते जाना मुझे अच्छा नहीं लगता
तुम्हें भी नहीं लगेगा, 
क्योंकि सुबह - शाम वहां से आते - जाते 
उसे भर आँख देखा है, मेरे साथ तुमने 
खैर, मोड़  के दूसरी तरफ 
अशोक के जो ऊँचे ऊँचे दरख्त 
हरहराया करते थे 
अब उनके साथ सिहरने वाले 
मुस्कराने वाले 
झूमने - गाने वाले लोग 
पार्कों , फुटपाथों , सड़कों पर वहां नहीं हैं
लोग होते हुए भी वहां नहीं होते
सोचता हूँ - क्यों होती है 
छतनार वृक्षों से लम्बी उम्र  ऊँचे दरख्तों की ?
क्या मिलता है इन्हें लम्बे समय तक 
प्रतीक्षारत खड़े रह कर ?
कुछ बच्चे हैं जो दिन के उजाले में 
खेलते हैं वहां /
चोर - सिपाही , राजा - रानी , गुड्डा - गुडिया वाले खेल नहीं 
लेकिन खेलते हैं 
और शाम घिरते ही  
अपने अपने घरों में बंद हो जाते हैं 
बल्कि कर दिए जाते हैं /
उनके माँ - बाप खिड़कियाँ , दरवाजे, यहाँ तक कि रोशनदान तक बंद कर लेते हैं
मैं सोचता हूँ -
वहां खेलने वाले बच्चे 
क्या पहचान सकेंगे 
वृक्षों कि छाया 
दरख्तों के गीत 
हवाओं का संगीत 
शाम क़ी चित्रकारी और
अंधेरों का रोमांच?
०००


  

रविवार, 30 जनवरी 2011



हम ठहरे आवारा बादल 
दुनिया की नज़रों में प्यारे तुम भी पागल हम भी पागल


हमने अपने जनम मरण का 
अर्थ न जाना बोझ न ढोया
आखिर हम किसलिए सोचते 
हमने क्या पाया क्या खोया




हम जैसों को रोक  न पाई 
दरवाजे की कोई सांकल
०००   
बटोही! तेरी प्यास अमोल 
नदियों के तट पर तू अपने प्यासे अधर न खोल !


जो कुछ तुझे मिला वह  सारा
नाखूनों पर ठहरा पारा 
मर्म समझ ले इस दुनिया का 
सिर्फ वही  जीता जो हारा 
सागर के घर से दो आंसू , का  मिलना क्या मोल ?


जल की गोद रहा जीवन भर
जैसे पात हरे पुरइन के 
प्यास निगोड़ी  जादूगरनी 
जल से बुझे न जाय अगिन से 
जल में आग, आग में पानी और न ज्यादा घोल.  
०००   
(ओशो कम्यून , पूना में कवि सम्मलेन जून ' १९८८) ० 

सोमवार, 17 जनवरी 2011

kavita

दिन ठहरते नहीं हैं किसी मोड़ पर
क्या करें आंसुओं से उन्हें जोड़ कर


तुम मिले तो हुए दिन उमंगों भरे
चांदनी से धुले लाख रंगों भरे
जी रहे थे हमें भी अनूठे प्रहर
अनगिनत गुनगुनाते प्रसंगों भरे
प्राण से प्राण तक चल रही थी मगर 
उठ गए तुम अधूरी कथा छोड़ कर 


दिन फिसलते हुए जा रहे हैं जहाँ 
आदमी की ज़रूरत नहीं है वहां 
एक पल हम भले शीश पर बांध लें 
पर समय को कभी बाँध पाए कहाँ 


सोच कर देख लो क्या मिलेगा तुम्हें
प्यार के गुनगुने आचरण छोड़ कर ?