कितना दुश्वार है हर बात के क़ाबिल होना
मुझसे पूछे कोई तन्हाई से महफ़िल होना
उसको अंजाम तो मालूम है अपना लेकिन
दरया क्यूँ चाहेगा इक लम्हा भी साहिल होना
गुल तो गुल आंधियां नाराज़ हैं खारों पर भी
अब ज़रूरी है चमन में मेरा दाखिल होना
सिर्फ़ उसके ही निशाँ पाए गए राहों पर
जिसने मंज़ूर किया अपना ही क़ातिल होना
उम्र के साथ ही एहसास बदल जाता है
अब मुनासिब नहीं हालात से गाफ़िल होना
000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें