मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

Kavita

 ओ मेरे प्रतिरूप !
पता नहीं कब से तुम मेरे साथ खेल रहे हो
जिसका अर्थ / मर्म समझने के प्रयास में 
अनेक बार स्वयं से जुड़ते -जुड़ते रह गया .
रह गया इसलिए कि तुम्हारे नैसर्गिक सौन्दर्य का आभास 
मुझे आकर्षित करता है /
और जब उस आभास के पीछे भागता हूँ ---तो 
अनुपस्थित हो जाता है.
इस अनुपस्थिति से मुझमें जो पराजय - बोध जन्म लेता है
उससे हर बार 
मेरी प्यास की तीव्रता बढती रही है.
०००
अपनी इस 
तीव्रतर होती प्यास को 
कब तक गाता रहूँ ?
और गाता रहूँ कब तक
तुम्हारा आभासित सत्य ?
०००
तुम्हें केंद्र मान 
आँखें मूंद 
जब तुम्हारा ध्यान किया,
तुम्हारी धूमिल आकृति 
मेरे बैंगनी दृष्टी फलक पर 
दिप - दिप करने लगी /
जिसके प्रभामंडल में 
न जाने क्या था कि
मुझे फिर कस्तूरी मृग होना पड़ा.
०००
इस खेल में
मुझे क्यों लगता है कि 
कहीं कुछ 
खोट ज़रूर है ?
या...या तो तुम सत्य नहीं हो
या फिर मेरी प्यास की तीव्रता उर्जावान नहीं है.
0000000 

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