मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

Kavita !

कविता के लिए 
भावलोक में 
हाथ, पैर, मुंह और 
पूरा शारीर पटकते हुए लोग...
एक दिन हो जाते हैं - खाक ,
हो जाते हैं दफ़्न
किसी अंधी सुरंग में .
हमारी किलकारियां ,
गुनगुनाहटें ,
आवाजें और 
यहाँ तक कि चीखें 
सुरंग के मुहाने पर खड़ी
भीड़ के कानों तक नहीं पहुँच पातीं .
.......भीड़ जो असहाय है ,
भीड़ जो दृष्टी हीन है ( देख नहीं सकती ),
भीड़ जो अपाहिज है,
भीड़ जो जानवर है,
भीड़ एक भ्रम है.
०००
भीड़!
सुरंग के मुहाने पर
करती है - प्रतीक्षा 
किसी शब्द - सूर्य की !
.......कहाँ है ऐसा सूरज जो
भीड़ को खुश कर दे.
ले आये हज़ार - हज़ार खुशियाँ 
कहाँ है ऐसा सूरज ?
०००
सुरंग के भीतर जा रहे हैं लोग,
सुरंग से बाहर आ रहे हैं लोग,
लेकिन यह क्या !
लोग अपने कन्धों पर सलीब  ढो रहे हैं !
.......हाँ , उन्हीं में कुछ हैं जो 
हाथों में लाल गुलाब लिए हैं /
भीड़ लाल गुलाब लिए लोगों को देखती है 
बड़े अचरज से 
स्तब्ध रह जाती है.
.......अंधी सुरंग में गुलाब कहाँ ?
सोचती है भीड़ 
मन के तहखानों में महसूस करती है - गुलाब!
लेकिन जीवन में खिला - बसा नहीं पाती गुलाब.
बहुत चाह कर भी .......
न उसका रंग , न उसकी कोमलता !
सलीब से बहुत हल्का और कोमल होता है गुलाब 
लेकिन सलीब ढोते लोग
चुपचाप  कैसे पहुँच जाते हैं पूजा घरों तक?
अपनी मृत्यु का पैगाम ढोकर भी?
००००००० 

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