सोमवार, 17 जनवरी 2011

kavita

दिन ठहरते नहीं हैं किसी मोड़ पर
क्या करें आंसुओं से उन्हें जोड़ कर


तुम मिले तो हुए दिन उमंगों भरे
चांदनी से धुले लाख रंगों भरे
जी रहे थे हमें भी अनूठे प्रहर
अनगिनत गुनगुनाते प्रसंगों भरे
प्राण से प्राण तक चल रही थी मगर 
उठ गए तुम अधूरी कथा छोड़ कर 


दिन फिसलते हुए जा रहे हैं जहाँ 
आदमी की ज़रूरत नहीं है वहां 
एक पल हम भले शीश पर बांध लें 
पर समय को कभी बाँध पाए कहाँ 


सोच कर देख लो क्या मिलेगा तुम्हें
प्यार के गुनगुने आचरण छोड़ कर ?

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