मैंने उन दिनों सात या नौ रुपये की खरीदी थी एक किताब, कविता की एक किताब / कनुप्रिया / भारती की कनुप्रिया/ पढ़ा उसे कई बार/ आज भी जब तब पढता हूँ/ भीतर भीतर कनुप्रिया गूंजने सी लगती है /...आज भी महकने लगी है कनुप्रिया / .......तब कनुप्रिया की कविताएँ दोस्तों को सुनाता घूमता था / उन दोस्तों को जो या तो कनु की भूमिका में थे या उसे समझने की में आस्था से रहा करते थे / कविताओं का अर्थ कौन कितना समझ पाया क्या कहें / अपनी अपनी पात्रता के अनुरूप ही गृहण किया होगा / उन दिनों अच्छा लगता था जब कोई छीन लेता था वह किताब / सोचता कि प्रेम बाँटने से ही बढ़ता है /सोचता कि कल से यह भी रहेगा कालिंदी अवगाहन में मेरे साथ / यह भी जान सकेगा कनु और राधा क़ी प्रेम लीलाओं का अर्थ / अपने लिए फिर खरीद लाता था एक प्रति /.......समय का एक बड़ा टुकड़ा गुज़र गया / देखता हूँ कि तब जो कृष्ण मुद्रा अभिनय में मजनूं तक कहलाने में फख्र महसूस करते थे उनके रथ चक्र न जाने कब कहाँ टूट कर कैसे ध्वस्त हो गए / .......किशोर मन में "गुनाहों का देवता" के सुधा और चंदर इतने गहरे जम कर बैठ गए थे कि "कनु" और "चंदर" अक्सर मुझे एक ही नज़र आते / सोचता हूँ चंदर और कनु जैसे पात्रों को भारती ने चुना तो क्यों?.......उत्तर आता है कि पात्रों को चुनना और उन्हें किसी सांचे में ढालना , किसी फ्रेम में बुनना या जड़ना , उन पात्रों के बहाने स्वयं को जीना ही तो होता है / होता है यही होता है / पात्रों अथवा कथानक में वह अपना अक्स देखता है / सर्जक का अधिकाँश उसमें निरुपित हो जाता है / .......उन्हीं दिनों मेरी एक मित्र ने पढाया था एक उपन्यास "रेत क़ी मछली " / भारती क़ी पहली पत्नी कांता भारती का लिखा / ...तमाम सवालों में घिर गया था / उपन्यास में मैं खोज रहा था चंदर को, जो नहीं मिला / जब सुधा नहीं थी तो सवाल ही नहीं था चंदर के वहां होने का /.......एक इकाई के रूप में प्रत्येक प्राणी अपने तंत्र के अधीन होता है / इससे प्रेम क़ी महत्ता कम हो जाती है क्या ? प्रेम तो भक्ति क़ी कक्षा तक ले जाता है / अपना सब कुछ न्योछावर करने में ही प्रेम क़ी गति है / तिल तिल विसर्जित होने में ही उसकी गति है / यहाँ भी शायद अपने अपने तंत्र क़ी व्यवस्थाओं का , नहीं अवस्थाओं का अंतर है / प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता और अहंकार मांगता है - प्रतिकार /......."रेत क़ी मछली" स्वयं को तनावों से मुक्त करने क़ी कोशिश क़ी कहा जा सकता था / इसी रूप में वह एक उपन्यास था / फिर भी हो सकता है इलाहबाद में कोई भारती के उपन्यास क़ी सुधा रही हो नहीं तो रेत क़ी मछली नहीं लिखा जाता. .......खैर, यह जो बहाने से बात चल रही है ज़रूरी नहीं है कि इसे ज्यों का त्यों मान ले कोई./ शायद ग्रहण करेगा भी नहीं कोई./ हमारे पूर्वजों क़ी भाषा नहीं, बल्कि परिभाषा कि प्रेम कुछ पाने में नहीं , सब कुछ दे देने में आनंदित होता है , शाश्वत होकर भी आज नया अर्थ गढ़ने में तल्लीन है. निशरीरी आयामों से इतर सशरीर होकर / .......कुछ सवाल भीतर पड़े थे और कुछ उगे जब अख़बारों में पढ़ा कि- "भारती नहीं रहे".
प्रयास करके बहुत कुछ हुआ जा सकता है सिर्फ नहीं हुआ जा सकता है तो "कनुप्रिया"
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