रविवार, 30 जनवरी 2011



हम ठहरे आवारा बादल 
दुनिया की नज़रों में प्यारे तुम भी पागल हम भी पागल


हमने अपने जनम मरण का 
अर्थ न जाना बोझ न ढोया
आखिर हम किसलिए सोचते 
हमने क्या पाया क्या खोया




हम जैसों को रोक  न पाई 
दरवाजे की कोई सांकल
०००   
बटोही! तेरी प्यास अमोल 
नदियों के तट पर तू अपने प्यासे अधर न खोल !


जो कुछ तुझे मिला वह  सारा
नाखूनों पर ठहरा पारा 
मर्म समझ ले इस दुनिया का 
सिर्फ वही  जीता जो हारा 
सागर के घर से दो आंसू , का  मिलना क्या मोल ?


जल की गोद रहा जीवन भर
जैसे पात हरे पुरइन के 
प्यास निगोड़ी  जादूगरनी 
जल से बुझे न जाय अगिन से 
जल में आग, आग में पानी और न ज्यादा घोल.  
०००   
(ओशो कम्यून , पूना में कवि सम्मलेन जून ' १९८८) ० 

1 टिप्पणी:

  1. इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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