सोमवार, 31 जनवरी 2011

MERI DIARY

खोलता हूँ डायरी  और खो जाता हूँ 
.......खो जाता हूँ -
जहाँ होता है मेरा वनपाखी 
कहता हूँ उससे -
आनंद के असीम आकाश में ले जाने वाले 
डायरी से उड़ कर
मत जाना /
जानता हूँ 
डायरी के किसी न किसी पृष्ठ पर ही रहोगे तुम/
तुम यहाँ आए हो /
कब आये थे ?
...खैर , डायरी के वे पृष्ठ जिन पर तुम रहे 
नीले हो गए /
और मुग्ध हूँ डायरी पर मैं 
पन्ने जब पहली बार नीले दिखे
मैंने तुम्हें पंख समेटे 
डायरी में बैठे पाया था /
तुम यहाँ आकर अपने स्वभाव से कट गए थे 
तुम्हारे कंठ का गान चुप था 
मैं तुम्हारे कंठ का खोया गीत पाने के लिए बेचैन रहा 
खोज रही हैं मेरी आँखें और मेरा स्वर वही गीत 
जो तुम गाया करते थे /
वनपाखी सुनो -
तुम डायरी में बैठ कर 
जिस संगीत के मीड का आस्वादन करते हो 
उसका सम्मोहन हमारे होने का अर्थ होता है /
तुम जिस तृप्ति से साक्षत्कार करते हो
उसे कोई संज्ञा दी  जा सकती है क्या ?
नहीं / 
डायरी को अपना पर्याय मान कर उड़ो
अभी दिन है न !
और देखो - जब डायरी के पन्ने 
सफ़ेद पड़ने लगें तो
शाम घिरते घिरते लौट आना 
डायरी के किसी न किसी पन्ने पर बसेरा लेने !
000

kuch baat

एक शख्स था यहीं  जो घटाओं दे दूर था
इंसान सा लगता था गुनाहों से दूर था.


मैं ढूँढने गया था उसी आदमी को कल
जो रूह क़ी बेचैन  सदाओं से दूर था


उसका तिलिस्म था कि था मेरी तलाश का
था सामने मगर वो निगाहों से दूर था.
000 

Dr. Dharm vir Bharti ke bahaane

मैंने उन दिनों सात या नौ रुपये की खरीदी थी एक किताब, कविता की एक किताब / कनुप्रिया / भारती की कनुप्रिया/ पढ़ा उसे कई बार/ आज भी जब तब पढता हूँ/ भीतर भीतर कनुप्रिया गूंजने सी  लगती है /...आज भी महकने लगी है कनुप्रिया / .......तब कनुप्रिया की कविताएँ दोस्तों को सुनाता घूमता था / उन दोस्तों को जो या तो कनु की भूमिका में थे या उसे समझने की में आस्था से रहा करते थे / कविताओं का अर्थ कौन कितना समझ पाया क्या कहें / अपनी अपनी पात्रता के अनुरूप ही गृहण किया होगा / उन दिनों अच्छा लगता था जब कोई छीन लेता था वह  किताब / सोचता कि प्रेम बाँटने से ही बढ़ता है /सोचता कि कल से यह भी रहेगा कालिंदी अवगाहन में मेरे साथ / यह भी जान सकेगा कनु और राधा क़ी प्रेम लीलाओं का अर्थ / अपने लिए फिर खरीद लाता था एक प्रति /.......समय का एक बड़ा टुकड़ा गुज़र  गया / देखता हूँ कि तब जो कृष्ण मुद्रा अभिनय में मजनूं तक कहलाने में फख्र  महसूस करते थे उनके रथ चक्र न जाने कब कहाँ टूट कर कैसे ध्वस्त हो गए / .......किशोर मन में "गुनाहों का देवता" के सुधा और चंदर इतने गहरे जम कर बैठ गए थे कि "कनु" और "चंदर" अक्सर मुझे एक ही नज़र आते / सोचता हूँ चंदर और कनु जैसे पात्रों को भारती ने चुना तो क्यों?.......उत्तर आता है कि पात्रों को चुनना और उन्हें किसी सांचे में ढालना , किसी फ्रेम में बुनना या जड़ना , उन पात्रों के बहाने स्वयं को जीना ही तो होता है / होता है यही होता है / पात्रों अथवा कथानक में वह अपना अक्स देखता है / सर्जक का अधिकाँश उसमें निरुपित हो जाता है / .......उन्हीं दिनों मेरी एक मित्र ने पढाया था  एक उपन्यास "रेत क़ी मछली " / भारती क़ी पहली पत्नी कांता भारती का लिखा / ...तमाम सवालों में घिर गया था / उपन्यास में मैं खोज रहा था चंदर को, जो नहीं मिला / जब सुधा नहीं थी तो सवाल ही नहीं था चंदर के वहां होने का /.......एक इकाई के रूप में प्रत्येक प्राणी अपने तंत्र के अधीन होता है / इससे प्रेम क़ी महत्ता कम हो जाती है क्या ?  प्रेम तो भक्ति क़ी कक्षा तक ले जाता है / अपना सब कुछ न्योछावर करने में ही प्रेम क़ी गति है /  तिल तिल विसर्जित होने में ही उसकी गति है / यहाँ भी शायद अपने अपने तंत्र क़ी व्यवस्थाओं का , नहीं अवस्थाओं का अंतर है / प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता और अहंकार मांगता है - प्रतिकार /......."रेत क़ी मछली" स्वयं को तनावों से मुक्त करने  क़ी कोशिश क़ी कहा जा सकता था / इसी रूप में वह एक उपन्यास था / फिर भी हो सकता है इलाहबाद में कोई भारती के उपन्यास क़ी सुधा रही हो नहीं तो रेत क़ी मछली नहीं लिखा जाता. .......खैर, यह जो बहाने से बात चल रही है ज़रूरी नहीं है कि इसे ज्यों का त्यों मान ले कोई./ शायद ग्रहण करेगा भी नहीं कोई./ हमारे पूर्वजों क़ी भाषा नहीं, बल्कि परिभाषा कि प्रेम कुछ पाने में नहीं , सब कुछ दे देने में आनंदित होता है , शाश्वत होकर भी आज नया अर्थ गढ़ने में तल्लीन है. निशरीरी आयामों से इतर  सशरीर होकर / .......कुछ सवाल भीतर पड़े थे और कुछ उगे जब अख़बारों में पढ़ा कि- "भारती नहीं रहे".
                        प्रयास करके बहुत कुछ हुआ जा सकता है सिर्फ नहीं हुआ जा सकता है तो "कनुप्रिया"
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kal se guzarta aaj

मिलते हैं, हाँ मुझे मिलते हैं,
बरसात की ठंडी हवाओं में
जाड़े की नर्म धूप में 
गर्मी की सुबहों में 
ओस की बूंदों में 
तुम्हारे सन्देश ...बराबर मिलते रहते हैं.
बरसात की बूंदों के साथ 
बजते हैं वे शब्द जो आवारागर्दी करते हुए 
भीग जाने पर 
होठों तक नहीं आ सके थे 
आते आते रह गए थे 
बस आँखों में उनकी चमक / झलकने लगी थी 
और महकने लगा था एक संगीत .......
शहर अभी भी वैसा ही घूमता है 
घरों के भीतर और बाहर /
घर के दूसरे मोड़ पर
एक वह जो छतनार वृक्ष था
अब भी वहीँ है
लेकिन अब 
उसका ठूंठ होते जाना मुझे अच्छा नहीं लगता
तुम्हें भी नहीं लगेगा, 
क्योंकि सुबह - शाम वहां से आते - जाते 
उसे भर आँख देखा है, मेरे साथ तुमने 
खैर, मोड़  के दूसरी तरफ 
अशोक के जो ऊँचे ऊँचे दरख्त 
हरहराया करते थे 
अब उनके साथ सिहरने वाले 
मुस्कराने वाले 
झूमने - गाने वाले लोग 
पार्कों , फुटपाथों , सड़कों पर वहां नहीं हैं
लोग होते हुए भी वहां नहीं होते
सोचता हूँ - क्यों होती है 
छतनार वृक्षों से लम्बी उम्र  ऊँचे दरख्तों की ?
क्या मिलता है इन्हें लम्बे समय तक 
प्रतीक्षारत खड़े रह कर ?
कुछ बच्चे हैं जो दिन के उजाले में 
खेलते हैं वहां /
चोर - सिपाही , राजा - रानी , गुड्डा - गुडिया वाले खेल नहीं 
लेकिन खेलते हैं 
और शाम घिरते ही  
अपने अपने घरों में बंद हो जाते हैं 
बल्कि कर दिए जाते हैं /
उनके माँ - बाप खिड़कियाँ , दरवाजे, यहाँ तक कि रोशनदान तक बंद कर लेते हैं
मैं सोचता हूँ -
वहां खेलने वाले बच्चे 
क्या पहचान सकेंगे 
वृक्षों कि छाया 
दरख्तों के गीत 
हवाओं का संगीत 
शाम क़ी चित्रकारी और
अंधेरों का रोमांच?
०००


  

रविवार, 30 जनवरी 2011



हम ठहरे आवारा बादल 
दुनिया की नज़रों में प्यारे तुम भी पागल हम भी पागल


हमने अपने जनम मरण का 
अर्थ न जाना बोझ न ढोया
आखिर हम किसलिए सोचते 
हमने क्या पाया क्या खोया




हम जैसों को रोक  न पाई 
दरवाजे की कोई सांकल
०००   
बटोही! तेरी प्यास अमोल 
नदियों के तट पर तू अपने प्यासे अधर न खोल !


जो कुछ तुझे मिला वह  सारा
नाखूनों पर ठहरा पारा 
मर्म समझ ले इस दुनिया का 
सिर्फ वही  जीता जो हारा 
सागर के घर से दो आंसू , का  मिलना क्या मोल ?


जल की गोद रहा जीवन भर
जैसे पात हरे पुरइन के 
प्यास निगोड़ी  जादूगरनी 
जल से बुझे न जाय अगिन से 
जल में आग, आग में पानी और न ज्यादा घोल.  
०००   
(ओशो कम्यून , पूना में कवि सम्मलेन जून ' १९८८) ० 

सोमवार, 17 जनवरी 2011

kavita

दिन ठहरते नहीं हैं किसी मोड़ पर
क्या करें आंसुओं से उन्हें जोड़ कर


तुम मिले तो हुए दिन उमंगों भरे
चांदनी से धुले लाख रंगों भरे
जी रहे थे हमें भी अनूठे प्रहर
अनगिनत गुनगुनाते प्रसंगों भरे
प्राण से प्राण तक चल रही थी मगर 
उठ गए तुम अधूरी कथा छोड़ कर 


दिन फिसलते हुए जा रहे हैं जहाँ 
आदमी की ज़रूरत नहीं है वहां 
एक पल हम भले शीश पर बांध लें 
पर समय को कभी बाँध पाए कहाँ 


सोच कर देख लो क्या मिलेगा तुम्हें
प्यार के गुनगुने आचरण छोड़ कर ?